सतत् कृषि मुख्य रूप से मिट्टी के स्वास्थ्य पर निर्भर है, परंतु प्रायः इसको खाद उर्वरक एवं पैदावार जैसे विषयों की तुलना में बहुत कम महत्त्व दिया जाता है। हाल ही के प्रयासों से किसान सह-भागिता द्वारा निर्मित एवं संचालित जैव-इनपुट संसाधन केंद्र कृषि भूमि की सुप्रबंधकता एवं कृषि पारिस्थितिकी (अग्रोईकोलोजी ) पद्धत्ति को आगे ले जाने के लिए एक अच्छी राह दिखा सकते हैं।
प्रोफेसर रतन लाल ने अपने 2020 के विश्व खाद्य पुरस्कार स्वीकृति भाषण में समझाया था कि जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा की दोहरी चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें कृषि में मृदा (मिट्टी) स्वास्थ्य को प्राथमिकता देनी होगी। उनके अध्ययन के अनुसार, उपजाऊ मिट्टी, जो की अपघटित वनस्पति एवं सूक्ष्म जीवों से परिपूर्ण हो, हवा से लगभग 180 अरबटन कार्बन को अलग या संग्रहित कर सकती है। इसके पैमाने को समझने के लिए यह उदाहरण लिया जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में जीवाश्म ईंधन या फोसिल फ्यूल के उत्सर्जन का कुल आंकड़ा प्रति वर्ष दस अरब टन रहा है। हालांकि, मिट्टी के कटाव और रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग के संयुक्त दबाव ने मिट्टी के आवरण को उस बिंदु तक गिरा दिया है जहां रतन लाल इसे पीक सॉइल सीमा (Peak soil threshold) के रूप में वर्णित करते हैं। मृदा स्वास्थ्य को बेहतर करने के ठोस प्रयासों के बिना, हम जलवायु परिवर्तन को प्रभावी ढंग से कम करने और पूरी पृथ्वी के लिए सतत् रूप से भोजन का उत्पादन करने में असमर्थ होंगे।
मिट्टी के महत्व को पहचानना
वर्तमान में अधिकांश कृषि सम्बंधित अभियान बाजार को ध्यान में रखते हुए एवं फसल उत्पादन को बढ़ाने के इरादे से तैयार किये गए हैं। इनमे मिट्टी के स्वास्थ्य पर बहुत ज्यादा विचार नहीं किया गया है। किसान यह बात समझते हैं कि मिट्टी की उर्वरता पूरे कृषि पारिस्थितिकी तंत्र (या एकोसिस्टम ) पर निर्भर करती है लेकिन इसे कार्यान्वित करने में उन्हें अक्सर वह समर्थन नहीं मिल पाता जिसकी उन्हें जरुरत होती है। ग्रीन फाउंडेशन के अभियान "माटी मांगे मोर (3M)" का उद्देश्य मृदा फार्म कार्डों के सहभागी मूल्यांकन को प्रोत्साहित करके जैविक खेती को बढ़ावा देना है। अभियान के अंतर्गत सहभागी तरीके से किसानों को अपने खेत की मिट्टी में जैविक कार्बन स्तर के अनुसार श्रेणीगत कर उसकी गुणवत्ता में सुधार के लिए समाजसेवी संस्थाओं के नेटवर्क के साथ काम करने का अवसर दिया जाता है । इस अभियान के दौरान ग्रीन फाउंडेशन ने यह सीखा कि किसानों को अपनी खेती के लिए जैविक आदानों (या इनपुट) को विकसित करने में समर्थन की आवश्यकता है। इसके साथ ही उन तक उच्च गुणवत्ता वाले आदानों की पहुँच भी बढ़ाने की आवश्यकता है जिससे उनकी बाजार में उपलब्ध रासायनिक आदानों पर अत्यधिक निर्भरता को कम कर उनमे एक व्यावहारिक बदलाव लाया जा सकता है। इस सीख पर अमल करते हुए ग्रीन फाउंडेशन ने राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती गठबंधन (NCNF) के सहयोग से जैव-इनपुट संसाधन केंद्रों का विकास किया।
परिवर्तन के अनेक मार्ग
वर्तमान में यह संस्था मध्यप्रदेश की तीन तालुकाओं (बनखेड़ी, पांढुरना, सौसर) में 625 किसानों के साथ काम कर रही है, और उन्हें इसके लिए किसान समुदाय से काफी सकारात्मक प्रतिक्रियायें मिल रही है। शुरुआत में किसानों को ३ श्रेणियों में बांटा गया
1) वे किसान जो रासायनिक उर्वरक नहीं खरीद सकते हैं एवं अपने पौधों को खाद देने के लिए जैविक तरीकों के उपयोग करने का प्रयास कर सकते हैं।
2) वे किसान जो रासायनिक आदानों का उपयोग करके थक चुके हैं और बेहतर विकल्पों की तलाश कर रहे हैं।
3) वे किसान जो पहले से ही आदानों के वैकल्पिक रूपों का प्रयोग कर रहे हैं एवं उनके सफल होने की सबसे अधिक संभावना है।
मिट्टी पर प्रभाव के संदर्भ में संस्था तीन स्तरों पर काम करती है :
1) व्यक्तिगत उपयोग के लिए जैविक खाद बनाने हेतु किसानों को समर्थन लगभग ~5 एकड़ के कवरेज के लिए
2) छोटे पैमाने पर जैविक खाद बेचने में रुचि रखने वाले किसानों को तकनीकी और आधारभूत सुविधाएं प्रदान करना जिससे लगभग 50 एकड़ भूमि को कवर किया जा सके।
3) किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) के साथ मिलकर बड़े कृषि समूहों एवं बाजारों का निर्माण कर उन्हें जैव-इनपुट बेचने में मदद करना जिससे लगभग 500 एकड़ भूमि क्षेत्र को कवर किया जा सके।
हर श्रेणी के लिए ख़ास रणनीति से यह संस्था छोटे एवं बड़े दोनों तरह के किसानों तक पहुंचने में सफल हो रही है। संस्था का मानना है कि बड़े किसानों के व्यवहार में परिवर्तन लाकर खेती से जुड़े सामाजिक दृष्टिकोण को बदला जा सकता है। यह सहभागी तकनीक सरकार द्वारा दिए गए मृदा स्वास्थ्य कार्ड से बेहतर साबित हो रही है क्योंकि यह कार्ड सिर्फ मिट्टी की गुणवत्ता से जुड़ी जानकारी देने तक ही सीमित हैं। जानकारी को बदलाव लाने की प्रेरणा से जोड़ना प्रायः ही एक मुश्किल कार्य है लेकिन ग्रीन फाउंडेशन संस्था इसमें पूरी तरह से समर्पित है।
बदलाव की प्रक्रिया से उसके परिणाम तक - क्या कहते हैं किसान
केशलागांव के मोहन सिंह अपनी आजीविका के लिए अपनी 3 एकड़ कृषि भूमि पर निर्भर हैं। उन्हें यूरिया और डीएपी की बढ़ती लागत एवं मिट्टी की घटती उर्वरता के कारण अपने खेत में कीटों को खत्म करने में काफी कठिनाई हो रही थी। कर्ज बढ़ने के कारण वह अपने कृषि सम्बंधित खर्चों को कम करने के तरीकों की तलाश कर रहे थे और इसी सम्बन्ध में उन्होंने ग्रीन फाउंडेशन के कर्मचारियों से संपर्क किया। संस्था की मदद से उन्होंने जीवामृत, अपशिष्ट अपघटक (केवीके द्वारा विकसित) एवं वर्मीकम्पोस्ट बनाना सीखा। इनके नियमित उपयोग से उन्होंने पाया कि उनकी मिट्टी नरम और अधिक कृषि-योग्य हो गई है। उनके मुताबिक उनकी गेहूं की फसल ज्यादा खूबसूरत और आकर्षक लगती है। उनकी खेती की लागत रु14230 से घटकर रु8300 हो गई है एवं रसायनमुक्त फसल उगाने के उन्हें अतिरिक्त लाभ मिले हैं। उनके अनुभव ने आस-पास के क्षेत्रों के किसानों को भी जैविक खाद के उपयोग के लिए प्रेरित किया है।
कुछ ऐसे ही कारणों ने पांढुरना ब्लॉक में रायबासा गांव के मरहेश मनमोडे जी को लगभग दो साल पहले अपनी छह एकड़ ज़मीन में से 1.25 एकड़ ज़मीन पर प्राकृतिक खेती शुरू करने के लिए प्रेरित किया था। ग्रीन फाउंडेशन संस्था से प्रशिक्षण के पश्चात उन्होंने अपनी फसल के पुष्पण एवं फलन में अच्छी वृद्धि के साथ साथ अपनी आय में भी लगभग रु 18000 की वृद्धि देखी। अच्छे परिणामों ने उन्हें धीरे-धीरे पूरी 6 एकड़ ज़मीन पर प्राकृतिक खेती को अपनाने के लिए प्रेरित किया है।
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में बनखेड़ी गांव के पुरुषोत्तम कुशवाहाजी एवं उनके जैसे कुछ अन्य छोटे किसान अपने खेतों में जैव-आदान संसाधन केंद्र स्थापित करने में सफल हुए हैं और साथ ही साथ बीज बचाने की मुहीम से भी जुड़े हैं। राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती गठबंधन (NCNF) द्वारा कुरनूल, आंध्र प्रदेश के कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) में आयोजित जैव-इनपुट संसाधन केंद्र (बीआरसी) पर सात दिवसीय प्रशिक्षण में भाग लेने के बाद पुरुषोत्तम की रुचि इस विषय में तेजी से बढ़ी। उन्होंने इन तरीकों को चार एकड़ भूमि पर मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए उपयोग में लिया जो की रासायनिक उर्वरकों के लम्बे उपयोग के कारण कृषि करने योग्य नहीं बची थी। अब वे जीवामृत, दस पर्णी अस्त्र, नीमास्त्र, घना जीवामृत आदि जैव-आदान बना रहे हैं और नियमित रूप से इनका उपयोग अपने खेत में कर रहे हैं। उन्होंने एक स्थानीय बीज बैंक भी खोला, ताकि आस पास के किसान उनसे संपर्क कर सकें और पुनर्योजी कृषि प्रथाओं के बारे में अधिक जानकारी पा सकें।
जैव-आदानों के प्रचार से जुड़ा एक निरंतर चिंता का विषय महिलाओं से सम्बंधित यह रहा है कि इस तरह की श्रम-गहन प्रक्रियाओं का पूरा भार उनके ऊपर आ सकता है हालाँकि ये जैव-इनपुट केंद्रों को चलाने में रुचि रखने वाले महिला स्वयं सहायता समूहों के लिए लाभकारी विकल्प भी बन सकते हैं। इसके अलावा, महिलाएं रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल को बंद कर प्राकृतिक खेती अपनाने से किसानो को होने वाले स्वास्थ्य लाभ से भी अच्छी तरह से अवगत हैं। इसलिए वे भी प्राकृतिक खेती का पूरा समर्थन कर रही हैं। इन कारणों से महिलाओं की हिस्सेदारी से जैविक आदानों के उत्पादन एवं उपयोग को बढ़ावा देना एक अच्छी रणनीति साबित हो सकती है।
चैंपियन स्तर के किसानों द्वारा चलाये जा रहे जैव-इनपुट संसाधन केंद्र
यह सभी अनुभव कृषि तकनीकों में एक बड़े बदलाव की और इशारा करते हैं जो किसानों के नेतृत्व में और ग्रामीण समुदाय में जड़ित रहेगा। ग्रीन फाउंडेशन संस्था की सभी पहल सतत् बदलाव के लिए दिशा प्रदान करती हैं एवं जैव आदानों के उपयोग से स्थानीय अर्थव्यस्था के आधार का निर्माण करती है जो केंद्र सरकार के प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के निर्णय के समर्थन में है।
प्रमेल कुमार गुप्ता ग्रीन फाउंडेशन में पुनर्योजी कृषि के निदेशक हैं।
देबोरा दत्ता लिविंग फार्म इनकम प्रोजेक्ट, इरमा (IRMA ) में सीनियर रिसर्च फेलो हैं।
इस ब्लॉग का हिन्दी अनुवाद अंजू गुप्ता एवं भावेश सावरिया ने किया है। अंग्रेजी संस्करण यहाँ पढ़ें।
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